हरियाणा में भी चला मोदी की करिश्माई लोकप्रियता का जादू
कृष्णमोहन झा/
हरियाणा विधानसभा के चुनाव परिणामों ने कांग्रेस की सारी उम्मीदों पर फेर दिया है।उसके लिए हरियाणा के चुनाव परिणाम निराशाजनक साबित हुए हैं। कांग्रेस यह उम्मीद लगाए बैठी थी कि दस साल बाद उसे पुनः राज्य की सत्ता पर काबिज होने का सौभाग्य मिलने जा रहा है परंतु शायद वह जनता के रुख का अंदाजा लगाने में भूल कर बैठी और अब लगातार तीसरी बार उसे सदन के अंदर विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। गौरतलब है कि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने विधानसभा चुनावों की घोषणा के कुछ माह पूर्व नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री पद की बागडोर सौंपी थी जबकि पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को प्रधानमंत्री मोदी ने केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया था। भाजपा हाईकमान ने जिस रणनीति के तहत हरियाणा में नेतृत्व परिवर्तन किया था उस रणनीति का भाजपा को पूरा फायदा मिला और वह लगातार तीसरी बार सत्ता पर काबिज होने में कामयाब हो गई। गौरतलब है कि भाजपा ने चुनावों के कुछ माह पूर्व इस तरह के
प्रयोग कुछ अन्य भाजपा शासित राज्यों में भी किए और सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने में कामयाबी भी मिली। निश्चित रूप से हरियाणा विधानसभा चुनाव में भाजपा की इस जीत ने केंद्रीय मंत्री एवं हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर खट्टर का कद भी बढ़ा दिया है जो लगभग 9 साल तक मुख्यमंत्री की की कुर्सी पर आसीन रहे। हरियाणा में भाजपा की शानदार जीत के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं का उमंग और उल्लास चरम पर है जबकि कांग्रेस को यह समझ नहीं आ रहा है कि मतदान संपन्न होने के बाद घोषित हुए सारे चैनलों के एक्जिट पोल के नतीजे कैसे गलत साबित हो गये । दरअसल अब कांग्रेस को हरियाणा में मिली शोचनीय हार को स्वीकार करने का साहस दिखाना चाहिए और यह आत्म मंथन भी करना चाहिए कि आखिर क्यों जनता से उसकी दूरियां कम होने का नाम ही नहीं ले रही हैं।यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि चुनावों में अपनी आसन्न पराजय दीवार पर लिखी इबारत के समान स्पष्ट दिखाई देने के बावजूद कांग्रेस के सभी दिग्गज नेता सत्ता में वापसी का दावा कैसे कर रहे थे। मतदान संपन्न होने के बाद तो कांग्रेस को इतने अतिआत्मविश्वास ने जकड़ लिया था कि उसके अंदर नये मुख्यमंत्री के नाम पर भी विचार विमर्श प्रारंभ हो चुका था। मतगणना के दिन सुबह भी पार्टी के अंदर इसी तरह की चर्चाएं चल रही थीं लेकिन दो तीन घंटे की मतगणना के बाद सभी कांग्रेस नेताओं के चेहरों का रंग फीका पड़ने लगा। एक्जिट पोल के नतीजों पर आंख मूंद कर भरोसा करना उन्हें महंगा पड़ा। काश कांग्रेस के नेताओं ने एक बारगी यह भी सोच लिया होता कि एक्जिट पोल के नतीजे जिस तरह अतीत में भी कई बार गलत साबित होते रहे हैं उसी तरह इस बार भी गलत साबित हो गये तो पार्टी को कितनी किरकिरी का सामना करना पड़ेगा।
हरियाणा विधानसभा के चुनाव परिणामों से ऐसा प्रतीत होता है कि वहां भाजपा के पक्ष में पहले से ही अंडर करंट बह रहा था जिसे भांपने में कांग्रेस के रणनीतिकारों से चूक हो गई। इसमें कोई संदेह नहीं कि हरियाणा विधानसभा के चुनाव परिणामों ने समूची कांग्रेस पार्टी को हक्का बक्का कर दिया है । उसकी समझ में ही आ रहा है कि मतगणना के रुझान कैसे उसके पक्ष में आते आते उसकी गहरी शिकस्त का संदेश लेकर आ गये। दरअसल कांग्रेस को अपनी इस शोचनीय हार के लिए किसी और पर दोषारोपण करने के बजाय यह स्वीकार करने का साहस दिखाना चाहिए कि हरियाणा में उसके वरिष्ठ नेताओं के मतभेदों और मुख्यमंत्री पद की महत्वाकांक्षा ने उसे लगातार तीसरी बार करारी हार की कगार पर पहुंचा दिया। कांग्रेस सांसद एवं मुख्यमंत्री पद की दावेदार कुमारी शैलजा की टिकट वितरण में जिस उपेक्षा की गई उससे नाराज़ हो कर उन्होंने दस दिन तक न केवल पार्टी के चुनाव अभियान से खुद को अलग रखा बल्कि वे घर के बाहर ही नहीं निकलीं । उनकी नाराजगी दूर करने के लिए खुद राहुल गांधी को आगे आना पड़ा। राहुल गांधी ने मंच पर पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा से उनका हाथ मिलवाकर यह संदेश देने की कोशिश तो जरूर की कि पार्टी पूरी तरह एकजुट है परन्तु तब तक काफी देर हो चुकी थी। पार्टी के चुनाव अभियान से कुमारी शैलजा की इस दूरी ने पार्टी की चुनावी संभावनाओं को बहुत प्रभावित किया। टिकट वितरण में भूपिंदर सिंह हुड्डा ने जिस अपना वर्चस्व कायम रखा उसने भी अनेक नेताओं को रुष्ट कर दिया। कुमारी शैलजा की नाराज़गी ने दलित वोट बैंक को पार्टी से दूर करने में बड़ी भूमिका निभाई। कांग्रेस ने यह खुशफहमी भी पाल रखी थी हरियाणा में किसानों की नाराज़गी, अग्निवीर योजना का कथित विरोध , एंटी इन्कमबैंसी जैसे कारक उसका सत्ता से एक दशक पुराना वनवास समाप्त कराने में मददगार साबित होंगे परंतु शायद वह इस हकीकत को भूल गई कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की करिश्माई लोकप्रियता को चुनौती देने की स्थिति तक पहुंचना उसके लिए अभी नामुमकिन ही है।
(लेखक राजनैतिक विश्लेषक है)